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कुछ लिखने का ‘मूड’ भी चौपट कर गयी महंगाई

prashal
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दवाएं, चाय के अलावा रोजमर्रा की 300 चीजों पर क्‍या आधा फीसदी अतिरिक्‍त कर लगाना ठीक है। अगर ठीक है तो गलत क्‍या है? अगर दवा न ले पाने की वजह से मरीज अल्‍लाह को प्‍यारा हो जाए तो कोई बात नहीं। अगर लिखते वक्‍त चाय की तलब लगे और न मिले तो लेखनी चौपट। तकरीबन चार साल पुराना एक वाकिया बताऊं आपको, मुझे बृजेश शुक्ल जी की खबर कम्‍पोज करने का सौभाग्‍य मिला। बृजेश जी उस वक्‍त हिन्‍दुस्‍तान लखनऊ में सीनियर रिपोर्टर थे और चुनाव कवरेज में फैजाबाद आये हुए थे। बृजेश जी बोल रहे थे और मैं स्‍क्रीन पर उनकी खबरें उतार रहा था। तकरीबन एकाक पैरा लिखवाने के बाद बृजेश जी ने दिलीप को आवाज लगायी। दिलीप आया तो बृजेश जी ने अपने लिए पान मसाला लाने को कहा। फिर मेरी ओर देखते हुए बोले- ‘आप भी कुछ लेंगे।’ मैंने संकोचवश कहा- ‘नहीं सर, मैं ये सब नहीं खाता।’ फिर उन्‍होंने चुटकी भरे अंदाज में कहा- ‘जब तक हल्‍की नशा-पत्‍ती नहीं होगी तब तक खबर लिखने में मजा नहीं आएगा।’ आज जब हिन्‍दुस्‍तान में ही छपी ‘होली से पहले चढ़ा महंगाई का रंग’ पढ़ा तो बृजेश जी की याद आयी। अब तो कुछ लिखने पढ़ने के लिए ‘मूड’ भी महंगाई की भेंट चढ़ गया।

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