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न चेते तो लील जाएंगे ‘ब्लैकहोल’

prashal
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वैज्ञानिक बताते हैं ब्रह्माण्ड में हजारों ब्लैकहोल घूम रहे हैं जो पास आने वाले सितारों को निगलकर अपनी धधकती आग में खाक कर देते हैं, यानी उन सितारों का वजूद खत्‍म। शायद इसी को कुछ ने कयामत का नाम दिया और कुछ ने प्रलय कहा होगा। खैर ब्रह्माण्‍ड की बात ब्रह्माण्‍ड वाले जाने। हमने तो अपनी धरती को भी ठीक से नहीं देखा है। धरती को कौन कहे अपने शहर का भी अच्‍छी तरह दीदार नहीं किया है। अलबत्‍ता इतनी तो जानकारी मिलती है कि ब्रह्माण्‍ड में ही नहीं बल्कि अपने कस्‍बे और शहरों में भी ऐसे ब्‍लैकहोल खुलेआम नंगी आंखों से देखने को मिलते हैं। नासा के काबिल वैज्ञानिक तो कोशिश में लगे हैं कि किसी तरह अपनी पृथ्‍वी को ब्‍लैकहोल से बचा लिया जाए। मगर अपनी आला काबिल पुलिस दूरबीन से भी नहीं देख पाती है शहर, देहात में घूमते ब्‍लैकहोलों को। आये दिन कोई न कोई ग्रह सरेआम इनका शिकार बन जाता है। इन आसपास के ब्‍लैकहोलों को पता तब चलता है जब किसी चमकते सितारे का काम तमाम हो जाता है। दूर के ब्‍लैकहोलों की खोज में वै‍ज्ञानिकों की टीम माथा खपा रही है, लेकिन पास के ब्‍लैकहोलों से बचने बचाने की सिर्फ योजना बनती है। ब्‍लैकहोल के शिकार कभी निठारी तो कभी आरुषि और शशि जैसे सितारे हुआ करते हैं। खैर जो हुआ सो हुआ, आगे क्‍या होगा अभी देखना बाकी है। जबसे सुना है कि सन् 2012 तक अपनी धरती किसी ब्‍लैकहोल का ग्रास बन जाएगी, तब से बड़ी राहत महसूस कर रहा हूं कि न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी।

इधर राजधानी के टांग पसारने की बात सुनकर फि‍र एक खौफ समा रहा है कि एक और ब्‍लैकहोल लहलहाते खेतों के साथ लोक संस्‍कृति के विशाल ग्रह को लीलने के लिए बढ़ रहा है। चकाचक के नाम पर पहले ही कंकरीट के ‘ब्‍लैकहोलों’ ने गांव देहात के साथ अन्‍न के भण्‍डार खेतों को लील लिया है। अब जो बचे खुचे लोकगीत लोक संस्‍कृति और धरतीपुत्र हैं उन्‍हें भी राजधानी का ब्‍लैकहोल लीलना चाहता है। शायद यही विकास है। राजधानी बढ़े। गांव खेत छोटे हों और फिर घडि़याली आंसू के साथ रोना कि देश में अन्‍न का संतोषजनक उत्‍पादन नहीं हो रहा है। ऐसा ख्‍वाब में भी मत सोचिएगा कि मैं चकाचक चौकन्‍ना करने वाली राजधानी का फैलाव नहीं देखना चाहता। दिन पर दिन खेत की मेड़ों पर संगेमरमरी दीवारें बनायी जा रही हैं। खुशी होती है कि चलो सूने दरवाजे पर कुमकुमें तो लटकाए जा रहे हैं। हमारे गांव की गलियों में भले अंधेरा छाया हो मगर राजधानी की जगमगाहट देखकर जरूर खुशी हो रही है कि राजधानी के दरबारियों और आम लोगों में कुछ तो फर्क होना चाहिए। मगर अर्श कहीं ब्‍लैकहोल बनकर फर्श को निगल न ले। फिर कहां मिलेगा प्रेमचन्‍द को होरी? क्‍योंकि उन्‍हें लील रहे हैं ऊंची हवेलियों में आबाद शानोशौकत वाले ‘ब्‍लैकहोल।’ हमें तो विशुद्ध प्राकृतिक आबोहवा पसंद है। अपने छोटे से घर के लान में बैठकर रात के दो-दो बजे तक दोस्‍तों से बातें करना बहुत भाता है। अभी भी वक्‍त है अपनी लोक संस्‍कृति को बचाने का…वरना ब्‍लैकहोल लील जाएंगे।

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